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इज़राइल युद्ध का असली कारण क्या है?

द भ्रमजाल में एक बार फिर आपका स्वागत है। आज की चर्चा में हम जानेंगे कि वर्तमान  इजराइल युद्ध का असली कारण क्या है? What is the real reason ...

Real-Reason-War-with-Israel

द भ्रमजाल में एक बार फिर आपका स्वागत है। आज की चर्चा में हम जानेंगे कि वर्तमान इजराइल युद्ध का असली कारण क्या है? What is the real reason for the Israel war?

इस्लाम के शुरुआती दौर में जब कुछ अरबी लोगो ने इस्लाम के प्रवर्तक को अपना Prophet मानना शुरू किया तब वो यहूदियों और ईसाइयों पर भी दबाव बनाने लगे कि वो लोग भी उनके Prophet को अपना पैगंबर स्वीकार करके उन्हें अपने पैगंबरों की श्रृंखला का ही एक पैगंबर माने।

इस बात को लेकर अरबियों और ईसाई, यहूदियों की बहसें होने लगी।

यहूदी व ईसाई मांग करने लगे कि अगर इस्लाम के नए घोषित पैगंबर के पास पैगंबर होने की निशानियां और दलीलें हैं तो वह इसे साबित करें।

इसलिए शुरुआती दौर में इस्लाम के प्रवर्तक जगह-जगह जा कर तमाम बहसों में हिस्सा लेते थे और स्वयं को पैगंबर साबित करने की कोशिश करते थे। ये बहसें पूरी तरह से धार्मिक तर्क-वितर्क के साथ होती थीं।

ईसाई और यहूदियों के साथ इस तरह के वार्तालाप के सैकड़ों दौर चले। लेकिन यहूदी और ईसाई उस हद तक सहमत नहीं हुए जैसा प्रवर्तक और उनके समर्थक चाहते थे।

जब पैगंबरी का दावा जब शुरू हुआ तो ये कहा गया कि इस्लाम के नए पैगंबर उसी कड़ी का हिस्सा हैं जिस कड़ी में ईसाई और यहूदियों के पैगंबर हैं तो यहूदी इस बात से पूरी तरह से इंकार करते थे। क्योंकि उनके यहां पैगंबर के आने की जो नई निशानियां या भविष्यवाणियां की गई थीं उस से इस्लाम के नए पैगंबर का कोई मेल नहीं हो पा रहा था।

यहूदियों का ये दावा था कि अगला पैगंबर वो होगा जो उनकी नस्ल और उनके लोगों के बीच आयेगा। वो अरब या कहीं और नहीं आएगा। वो Hebrew बोलेगा और Hebrew में हमसे वार्तालाप करेगा। यहूदियों का ये दावा एक तरह से Tarksheel दावा है।

कौन सही है इज़राइल या फिलिस्तीन?

आप ख़ुद सोचिए कि क्या यह बात तार्किक रूप से सही है कि हिन्दू धर्म का ईश्वर हिंदुओं के लिए कोई एक देवदूत, अवतार या पैगंबर भेजे और वो पैगंबर अमेरिका के फिलाडेल्फिया में एक ईसाई घर में पैदा हो और फिर वो और उसके अनुयाई वहां अमेरिका में बैठकर भारत के हिंदुओं को ये समझाएं कि "तुम्हारे ईश्वर ने मुझे तुम लोगों के लिए यहां अमेरिका में भेजा है।

अब तुम लोग आओ मेरे पास आओ और अपनी सारी पुरानी किताबें वेद, पुराण, गीता, उपनिषद एक किनारे रख दो, अब से तुम उन्हें मत पढ़ना क्योंकि तुम्हारी किताबें पुरानी और मिलावटी हो चुकी हैं, अब उनमें सत्य नहीं बचा है।

अब जो मै बोल रहा हूं इसे सुन कर एक किताब बनाओ और उसे मानो। मेरे बाद अब कोई अन्य पैगंबर या देवदूत नहीं आएगा इसलिए बस अब से मुझे मानों, मेरे बाद सब ख़त्म। अब से सिर्फ़ मैं ही मैं रहूंगा जब तक ये दुनिया है तब तक। तुम्हारी नई भाषा अंग्रेज़ी रहेगी और संस्कृत इत्यादि सब ख़त्म।"

क्या एक भी हिन्दू इसे मानेगा? वो क्यों माने? क्या ये बात किसी भी सिरे से तर्कसंगत है?

मैं इसीलिए हमेशा से इस्राइली यहूदियों के साथ हूं। मैं अगर इस्लाम के शुरुआती दौर में भी होता तो भी मैं इन सब दावों को न मानता और सिरे से इस बात का इंकार करता। क्योंकि यह एक बेतुकी और तर्कहीन दलील है।

लेकिन इन दलीलों को एक भीड़ मानती है। वो 1450 साल से इन तर्कहीन दलीलों को मान आक्रामक हो कर, मार-काट पर उतारू है। तो इसका मतलब यह नहीं हो जाता है कि ये भीड़ सही है। क्योंकि इस भीड़ से बड़ी भीड़ ईसाइयों की है। अगर बड़ी भीड़ मतलब सत्य, तो फिर ईसाई सबसे अधिक सत्य पर हुए।

यहूदियों को लेकर मेरा कोई धार्मिक प्रेम नहीं है और न ही मुसलमानों को लेकर कोई द्वेष है। आपकी बातें आपके लिए बड़ी तर्कसंगत हैं सिर्फ इसलिए क्योंकि आपकी धार्मिक आस्था है मगर इस बात को समझिए कि सारी दुनिया के अन्य लोगों को आपकी धार्मिक आस्था तर्कसंगत नहीं लगती है।

हम आपकी आस्था और उन्माद से दूर खड़े होकर सोचने वाले लोग हैं। हम वो सच देखते हैं जो आप नहीं देखना चाहते हैं और न ही उस पर बात करना चाहते हैं। आपके अंदर बस धार्मिक उन्माद है कि किसी तरह इस्राइल नष्ट हो जाए और ये उन्माद आप में 1450 साल से बना हुआ है।

1450 से आपके अंदर ये उन्माद है कि सारी दुनिया से मूर्ति पूजक खत्म हो जाएं। हर जगह आपके अल्लाह का राज हो। ये उन्माद आपका अपना होगा, सारे विश्व की विभिन्न जातियों और धर्मों का नहीं है। आप हमें इस उन्माद का साथ देने लिए न तो बाध्य कर सकते हैं और न ही इस पर कोई भी लिजलिजा तर्क आपका हम स्वीकार कर सकते हैं।

कहानी कुछ यूं है कि..

एक दिन जब इस्लाम धर्म के प्रवर्तक सुबह सो कर उठे तब उन्होंने अपने करीबी लोगों को बताया कि कल रात वो "अल्लाह" से मिलने गए थे। उत्सुक लोगों ने उनसे उस बात का पूरा ब्योरा मांगा तो उन्होंने पूरा ब्योरा दिया जो हदीसों में दर्ज है उसे आप पढ़ सकते हैं।

उस समय उन्होंने यह नहीं बताया था कि वो कहां से और कैसे गए? लेकिन उनके जाने के बाद सत्ता धारियों ने जब हदीस में उस घटना को लिखा तो इस घटना का ज़िक्र अपने हिसाब से सत्ता की शतरंज बिछा कर किया।  क्योंकि इस घटना का ज़िक्र क़ुरआन में है मगर जैसा हदीसें कहती हैं वैसा नहीं है।

सत्ता धारी खलीफाओं ने जो बातें हदीसों (श्रुतियाँ या स्मृति)में लिखीं उसमें उन्होंने यह बताया कि इस्लाम धर्म के प्रवर्तक को अल्लाह के दूत यानि फ़रिश्ते मक्का से लेकर पहले जेरूसलम गए फिर वहां से उन्हें सीधे आसमान में अल्लाह के पास ले जाया गया था।

इस हदीस को गढ़ने के पीछे बड़े राजनैतिक मकसद थे। मक्का से यहूदियों के धर्म स्थल जेरूसलम जाना और फिर वहां से अल्लाह के पास जाना। यहूदियों के धर्मस्थल जेरूसलम को इस्लाम का एक "स्थल" बनाने का बीज दूसरी बार हदीस में बोया गया।

पहला बीज तब बोया गया था जब इस्लाम के प्रवर्तक ने इस्लाम के बिल्कुल शुरुआती दिनों में, जेरूसलम की ओर मुंह करके प्रार्थना शुरू किया था। उनका ये प्रयास सत्ता फैलाने का प्रयास नहीं था, बल्कि वो स्वयं को यहूदियों और ईसाइयों के ही अब्राहमिक धर्म से जोड़ना चाहते थे।

इस्लाम के शुरुआती दौर में एक दशक से ज्यादा समय तक जेरूसलम इस्लाम के मानने वालों का क़िब्ला रहा है। Qibla यानि जिसकी ओर मुंह करके नमाज़ पढ़ी जाती है, जैसे आज मक्का है, वो था। Wikipedia

यहूदियों ने इस्लाम के प्रवर्तक को कभी स्वीकार नहीं किया। उनकी तमाम कोशिशों के बावजूद यहूदी यह मानने को तैयार न हुए कि इस्लाम के प्रवर्तक कोई पैगंबर हैं और यह पैगंबर इब्राहीम और मूसा के वंशज हैं। यहूदियों के इस इंकार से थक-हार कर अंत में उन्होंने मक्का स्थित काबा, जो कि उनके मूर्ति पूजक पुरखों का मंदिर था, उसे Qibla बना लिया।

सारी हदीसें बाद में इस नए क़िब्ला यानि काबा को लेकर लिखी गईं। इसे इब्राहीम का बनाया बताया गया और आदम को भी इस से जोड़ा गया।

लेकिन कहानी गढ़ने वाले यह नहीं सोच पाए कि अगर वो एक दशक से अधिक समय तक जेरूसलम को क़िब्ला (Qibla) मानते रहे तो फिर उन्हें पहले इस काबा का और इसे इब्राहीम के द्वारा बनाए जाने का पता कैसे नहीं चला?

ख़ैर.. मुद्दा ये नहीं है... ये सब लिखने का उद्देश्य बस इतना है कि लोग जान सकें कि कैसे यहूदियों के पवित्र स्थल जेरूसलम में इस्लाम की घुसपैठ शुरू हुई थी। Qibla जेरूसलम से मक्का तो बना दिया गया था मगर शुरुआती मुसलमानों के दिल में जेरूसलम को लेकर जो एक टीस और हार थी, वो हमेशा के लिए बैठ गई क्योंकि उन्होंने अपने धर्म प्रवर्तक को बहुत ही निराशा के साथ जेरूसलम को क़िब्ला न मानने के इस नए दर्शन को बेमन से अपनाते हुए देखा था।

जब इस्लाम के प्रवर्तक इस दुनिया से चले गए तब इस्लाम के एक ख़लीफा ने जेरूसलम में यहूदियों के मंदिर के बिल्कुल बगल में एक बिल्कुल छोटा सा प्रार्थना स्थल बनाया। क्योंकि ये वो लोग थे जिनके माता-पिता जेरूसलम को क़िब्ला मान कर उसके सामने मुंह करके लगभग एक दशक तक नमाज़ पढ़ चुके थे और जेरूसलम उनके दिल में बसा था।

ये सब घटना 644 से 680 के बीच की बात है। फिर 705 में एक ख़लीफा ने इसे और बड़ा किया फिर धीरे-धीरे बहुत बड़ी जगह घेरकर इसे एक पूरी मस्जिद बना दिया गया। इस तरह जेरूसलम में इस्लाम का प्रतीक स्थापित किया गया।

फिर हदीसें लिखी गईं। जिसमें यह लिखा गया कि इस्लाम के प्रवर्तक को ठीक इसी जगह से फरिश्ते एक घोड़े के जिस्म और इंसान की शक्ल वाले जानवर पर बिठाकर अल्लाह के पास ले गए थे।

यहूदियों की उपेक्षा का जो दर्द इस्लाम के प्रवर्तक ने महसूस किया था उसका वर्णन क़ुरआन में कुछ ऐसे आया है:

(ऐ मोहम्मद) हमने तुम्हें (मोहम्मद को निराशा के साथ) बार-बार आकाश की ओर मुँह ताकते देखा है, अतः अब हम तुम्हें उस क़िब्ला (जेरूसलम से अलग) की ओर फेरते हैं जिसे तुम अधिक पसंद करते हो। अतः तुम अपना मुँह मस्जिदे हरम की ओर फेर लो (क़ुरआन 2:144)

इज़राइल | Israel से आज जो युद्ध चल रहा है वो इसी उपेक्षा का बदला है उस उपेक्षा से कुंठित होकर हदीसों में गढ़ी गई कहानी को सच साबित करने की लड़ाई है।

~ Orig. author : Siddharth Tabish

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