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क्या धर्म, इंसानियत को सीमित कर देता है?

The Bhramjaal में एक बार फिर आपका स्वागत है। आज की चर्चा में हम जानेंगे कि  क्या धर्म, इंसानियत को सीमित कर देता है? आप जानते हैं कि मैं बि...

Humanity

The Bhramjaal में एक बार फिर आपका स्वागत है। आज की चर्चा में हम जानेंगे कि क्या धर्म, इंसानियत को सीमित कर देता है?

आप जानते हैं कि मैं बिल्कुल भी धार्मिक नहीं हूँ…! अब सोचिए कि, क्यों नहीं हूँ..? क्योंकि 'धर्म' आपकी इंसानियत (Humanity) को एक चयनित दायरे में सीमित कर देता है।

कैसे धर्म Humanity को सीमित कर देता है?

आइये बताता हूँ..! कैसे?

कभी ऐसी कोई पोस्ट देखिये जो Islamic Fundamentalism की आलोचना कर रही हो, आपको वहां कुछ लोग दिखेंगे, जो बतायेंगे कि कैसे अमेरिका ने झूठे बहानों के दम पर अफग़ानिस्तान और इराक़ को बरबाद कर दिया है।

आप उनसे पूछिये कि आपको उनसे क्यों हमदर्दी है...? क्या बरबाद होने वालों में आपका कोई सगा था?

जवाब मिलता है। "नहीं…!"

"बस इंसानियत (Humanity) के नाते…!"

आपकी Humanity तब क्यों नहीं जागती?

"अच्छा तो यही इंसानियत (Humanity) तब क्यों नहीं जागती थी जब ISIS वाले अन्य लोगों का बेरहमी से कत्ल कर रहे थे?"

तालिबान/अलकायदा जैसे आतंकवादी संगठन मज़हब के नाम पर हर तरफ मौत का खेल रहे हैं, तो वे जिस धर्म का प्रतिनिधित्व करते हैं... इंसानियत (Humanity) के नाते उन लोगों की पूरी कौम से क्यों नहीं नफ़रत होती? जैसी अफ़गानिस्तान और इराक़ को बरबाद करने के नाम पर पूरे अमेरिका से हो जाती है...!

जवाब है, धर्म...!

अमेरिका का धर्म अलग है और इन जेहादियों का समान।

पिछले साल जब इज़राइल (Israel) के हाइफा में आग लगी थी तो कई मुसलमान, वहाँ के यहूदियों के जल कर मरने का जश्न मना रहे थे…!

पूछो कि उनका क्या लेना-देना है विदेश में रहने वाले उन यहूदियों से?

जवाब मिलता…

क्योंकि वे फिलिस्तीन के मुसलमानों पर जुल्म ढाते हैं…!

तो? आपका फिलिस्तीनियों से क्या लेना-देना है?

जी.. इंसानियत (Humanity) के नाते…

तो मज़लूम तो यहूदी भी रहे हैं।

Salahuddin Ayyubi से ले कर Adolf Hitler तक ने बेशुमार मारा है उन्हें…

सबसे ज्यादा कत्लेआम तो इसी कौम का हुआ है, तो इंसानियत (Humanity) के नाते उनसे वही हमदर्दी कभी क्यों नहीं महसूस होती आपको?

जवाब है धर्म।

इसी तरह भारत में किसी अल्पसंख्यक अटैक में कुछ लोगों की नफ़रत हत्यारों के समर्थन में नजर आती है…!

वहीं बहुसंख्यक वर्ग तो बेचारा अब तक यह प्रताड़ना महसूस कर रहा है कि कई सौ सालों तक मुस्लिम बादशाहों ने उन पर बेपनाह जुल्म किये…!

पूछो कि क्या खुद उन पर जुल्म हुए थे?

नहीं... पुरखों पर किये गए थे, जो कब के गुजर गये हैं। तो उनका दर्द अब क्यों महसूस हो रहा…!

जी, इंसानियत के नाते। पर जुल्म तो अंग्रेजों के राज में मुसलमानों पर भी बहुत हुए थे। 1857 की असफल क्रांति के बाद ढेरों मुसलमानों को भी बेरहमी से मारा गया था... कभी उनसे भी हमदर्दी हुई? नहीं... ये दर्द भी ज़नाब धर्म देख कर पैदा होता है।

मुस्लिम बादशाहों ने हमारे लोगों को मारा काटा... मंदिर तोड़े।

तो अशोक ने भी मंदिर तोड़े थे और बहुत से लोगों को मारा था…

शुंगकाल में भी बहुत से मठ तोड़े गये थे और बौद्धों को मारने पर स्वर्ण मुद्रायें तक दी जाती थीं…!

कभी यहां भी इंसानियत के आधार पर अशोक या पुष्यमित्र की कौम से नफरत हुई? नहीं... क्यों नहीं? कारण फिर वही… धर्म।

कुछ लोगों को मुस्लिम बादशाहों की बनाई गयी धरोहरों से ग़ुलामी का अहसास होता है…!

पूछो कि क्यों होता है?

उन इमारतों को बनाने में क्या उन्होंने खुद ग़ुलामी की है? या पक्का पता है कि उनके किसी दादा परदादा ने की थी?

नहीं.. तो फिर? कारण है धर्म, क्योंकि यहां नफ़रत भरी क्रिया के प्रत्युत्तर में प्रतिक्रिया मिलती है। भले मुस्लिम बादशाहों के पुरखे कहीं बाहर से आये हों मगर वे यहीं पैदा हो कर मर-खप गये तो भारतीय ही हुए, तो उनका शासन गुलामी कैसे? एक बादशाह के तौर पर वे अच्छे-बुरे कैसे भी हो सकते हैं लेकिन थे तो भारतीय ही न...! तो उनका आकलन परायों के रूप में क्यों? कारण फिर वही धर्म।

यक़ीन मानिए, अगर मुसलमानों के अनुपात में ईसाई होते, जो वाक़ई बाहरी थे, पराये थे और जिनका शासन ग़ुलामी ही था... तो मुस्लिम बादशाहों के जुल्म के बजाय अंग्रेजों के हाथों कोड़े खाते अपने पुरखे याद आ रहे होते और संसद भवन, राष्ट्रपति भवन, इंडिया गेट, गेट वे ऑफ इंडिया जैसी चीजें तब ग़ुलामी का अहसास दिला रही होतीं लेकिन अभी ऐसा नहीं है क्योंकि यहां क्रिया पर वह प्रतिक्रिया नहीं मिलती... इससे उनकी आत्मा को तृप्ति नहीं मिलती।

सोचिए कि एक वर्ग को मुसलमानों से नफ़रत क्यों है?

इन्हें गोधरा याद रहता है। कश्मीरी पंडित याद रहते हैं इस वजह से यह मुसलमानों से नफ़रत करते हैं कि वह इनके पीछे थे, हालाँकि भले किसी पीड़ित प्रभावित से इनका कोई नाता न हो लेकिन कारण इस इंसानियत के पीछे का धर्म...!

गुजरात दंगे के पीछे हिंदू थे, 84 के सिख दंगों के पीछे हिंदू थे, तो उस आधार पर हिंदुओं से नफ़रत क्यों नहीं...! ज़रा बत्तीसी निकालते हुए इस कारण को पहचानिये और कोई शुगर कोटेड बहाना तलाशिये।

दूसरे पक्ष वाले भी ऐसे ही अपनी इंसानियत (Humanity) बस तभी जगाते हैं जब पीड़ित मुस्लिम हो और पीड़ित करने वाला बौद्ध, यहूदी या हिंदू... वर्ना मुस्लिम ही हुए तो इनकी इंसानियत (Humanity) बैलेंस्ड हो जाती है।

एक अखलाक, मिन्हाज, पहलू की बात कीजिये... कई नारंग, केरली और बंगाली जस्टिफाई करने के लिये निकल आयेंगे। भले किसी का भी मरने वाले से दूर-दूर तक कोई नाता न हो, मगर पराये का दर्द महसूस करना भी इंसानियत है... बस शर्त इतनी है कि वह अपने धर्म का होना चाहिये।

राजसमंद राजस्थान में जो भी हुआ था... हत्यारे को शर्तिया देश की संभावित प्रतिक्रिया मालूम थी.. इसीलिये उसने लव-जिहाद के नाम पर अपने कृत्य को धर्म से जोड़ दिया कि उसके बाड़े के मतिमूढ़ फौरन धर्म के नाम पर समर्थन करने खड़े हो जायेंगे और सरकार बचाव के पैंतरे आजमाने में लग जायेगी।

जरा एक पल के लिये अपने धार्मिक बाड़े से बाहर निकल कर सोचिये कि अगर एक इंसान के तौर पर एक इंसान का यह कृत्य आपके सामने आता तो क्या आप इसका भी किसी भी तरह समर्थन कर पाते? नहीं न…!

तो फिर कौन है ऐसा न हो पाने का जिम्मेदार?

जाहिर है कि धर्म

थोड़ा ठहर कर सोचिये...! किसी भी हिंदू या मुसलमान ने एक हिंदू या मुसलमान के तौर पर खुद आपके साथ क्या कुछ गलत किया है या आप बिना वजह परायों का दर्द ढोये जा रहे हैं, वह भी उस इंसानियत (Humanity) के नाम पर, जो बस आपके अपने धर्म तक सीमित है।

अगर कोई बुरा करता भी है तो व्यक्ति विशेष या कोई दल विशेष उसके लिये जिम्मेदार होता है... फिर उसके लिये उसकी कौम से नफरत का आधार धर्म नहीं तो और क्या है?

पता नहीं आप कितने मुसलमान, यहूदियों, ईसाईयों से ऐसे ही नफ़रत किये जा रहे हैं, जबकि उनका फ़लाने ने कुछ नहीं बिगाड़ा.. लेकिन बस अपने धर्म के पीछे। उनके "धर्म" ने उनके पैदा होने के साथ ही यह सुनिश्चित कर दिया है कि किसका दर्द महसूस करना है और किससे बिना उसे जाने पहचाने ही बस नफ़रत करनी शुरू कर देनी है।

यह "धर्म" ही तो है जो बिना किसी जान-पहचान, रिश्तेदारी, कम्यूनिकेशन के भी एक तरफ आपको किसी या किन्हीं हत्यारों के समर्थन में खड़ा करने, तो दूसरी तरफ मौत को गले लगाने वाले पीड़ितों के पक्ष में गोलबंद होने का आधार प्रदान करता है... सिर्फ उस इंसानियत (Humanity) के नाम पर जो एक महदूद दायरे में बंधी है।

यह जितने भी इफ, बट, अगर, मगर, किन्तु, परन्तु के Sugar Coated प्रत्यय लगा कर किसी घटना के आलोचना करने वाले हैं... यह सब इसी सीमित इंसानियत (Humanity) के मोहताज़ हैं।

कारण, वही है "धर्म"।

अब मैं कैसे अपनाऊँ इस "धर्म" को जो मेरी ही इंसानियत (Humanity) को बांध देता है!

आप ही बताइये? आज कौन सा धर्म है जो इन दायरों में बंधा नहीं है?

~अशफाक़ अहमद

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