द भ्रमजाल पर आज की चर्चा में हम जानेंगे कि भारतीय हिन्दी सिनेमा में नास्तिकता का इतिहास क्या है? नास्तिकता वह महान विचार पद्वति है जो सृष्ट...
द भ्रमजाल पर आज की चर्चा में हम जानेंगे कि भारतीय हिन्दी सिनेमा में नास्तिकता का इतिहास क्या है?
नास्तिकता वह महान विचार पद्वति है जो सृष्टि के बारे में तार्किक समझ के साथ समाज में इंसान के मानवीय कर्तव्यों को निर्धारित करता है। प्राचीन काल में आचार्य चार्वाक और तथागत बुद्ध ने नास्तिकता पर आधारित नैतिकता का प्रचार किया था जिससे आगे चलकर नास्तिकता की महान फिलॉसफी भारतीय उपमहाद्वीप में खूब फली-फूली और आगे चलकर नास्तिक विचारों पर आधारित सामाजिक व्यवस्था का निर्माण सम्भव हुआ।
पूरी दुनिया में केवल भारत में ही ऐसा संभव हो पाया था लेकिन बाद में जब भारतीय समाज में बाहर के ईश्वरवादी विचारों का संक्रमण शुरू हुआ तब नास्तिकता की धाराएं खत्म होती चलीं गईं और आस्तिकता की ऐसी होड़ शुरू हुई कि पूरा समाज अलग-अलग पंथ, सम्प्रदाय, मजहब और धर्म में बंट कर ईश्वरवाद के चंगुल में फंस कर रह गया।
नास्तिकता और भारतीय सिनेमा
धार्मिक पोथियों में नास्तिकों को विलेन के रूप में दर्शाया गया तो सिनेमा ने भी नास्तिकों की छवि को धूमिल करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जो ईश्वर को नहीं मानते वो नास्तिक होते हैं भारतीय सिनेमा ने नास्तिकता को हमेशा इसी रूप में दर्शाया है 1954 की नास्तिक फ़िल्म हो या 2011 में आई Oh My God [OMG]
बॉलीवुड नास्तिकता की महान फिलॉसफी को कभी समझ ही नहीं पाया यही कारण है की जो नास्तिक होते हैं वो ईश्वर को क्यों नहीं मानते ? इस सवाल पर गम्भीर चिंतन वाली कोई फ़िल्म भारतीय सिनेमा नहीं दे पाया। बॉलीवुड ने नास्तिकता को हमेशा एक बुराई के रूप में ही चित्रित किया है।
समाज को बदलने में सिनेमा की अहम भूमिका होती है लीक से हटकर और आम धारणाओं को तोड़ते हुए कई फिल्मकारों ने समाज को बदलने की कोशिश की है लेकिन नास्तिकता के मामले में भारतीय सिनेमा ने कभी ऐसा साहस नहीं किया। "नास्तिक" थीम पर जितनी भी फिल्में बनीं उनका मकसद नास्तिकता को दफन करना ही रहा।
धर्म की संस्थापना के लिए भगवान विष्णु से ज्यादा मेहनत बॉलीवुड ने की है इसलिए लगभग हर बॉलीवुड मूवी में मन्दिरबाजी का कोई न कोई दृश्य ठूंसा हुआ जरूर नजर आता है धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भी बॉलीवुड ने दूसरे धर्मों को भी लगातार महिमामण्डित किया। आस्तिकता की बची-खुची कसर धारावाहिकों के जरिये पूरी की गई, सिनेमा और धारावाहिकों की पूरी इंडस्ट्री आस्तिकता का कारखाना बन कर रह गई। यहां नास्तिकता के लिए कोई जगह बची ही नहीं।
धार्मिक फिल्मों से अलग नास्तिकता की थीम पर भी कुछ फिल्में बनी लेकिन इन फिल्मों का मकसद नास्तिकता की संभावनाओं को भी खत्म करने का ही रहा।
1954 की नास्तिक फ़िल्म का नायक नास्तिक है उसके नास्तिक होने के पीछे ट्रेजडी है उसके माँ बाप दंगों में मारे जाते हैं घायल भाई के लिए पुजारी मंत्र पढ़ने से मना कर देता है उल्टे मन्दिर से चोरी के आरोप में पुजारी उसे पुलिस के हवाले कर देता है कोर्ट में जिरह होती है और उसे एक साल की सजा हो जाती है इस बीच उसके भाई की मौत हो जाती है और बहन मजबूरी में दलालों के हाथों पड़ कर तवायफ बन जाती है जब वह जेल से बाहर आता है और बहन के पास जाता है तो वह आत्महत्या कर लेती है इन सब के लिए वह पुजारी को जिम्मेदार मानता है और उससे बदला लेने निकल पड़ता है इसी बीच उसे पुजारी की बेटी से प्यार हो जाता है दोनों गुपचुप तरीके से शादी कर लेते हैं नायिका गर्भवती हो जाती है दोनों घर से भाग जाते हैं लेकिन जब हीरोइन को पता चलता है कि उसका पति नास्तिक है तो वह यह बात बर्दाश्त नहीं कर पाती दोनों बिछड़ जाते हैं।
अंत मे फ़िल्म का नायक नास्तिकता की ट्रेजडी से बाहर निकल आता है और आखिरकार उसे एक आस्तिक होने का सौभाग्य प्राप्त हो ही जाता है।
इस फ़िल्म के कमेंट बॉक्स में एक दर्शक ने इस फ़िल्म के बारे में एक ही लाइन में जो लिखा है...वह इस फ़िल्म के बारे में बिल्कुल सटीक टिप्पड़ी है.. इस फ़िल्म का नाम तो आस्तिक होना चाहिए।
अमिताभ बच्चन की नास्तिक फ़िल्म में भी यही फिलॉसफी दिखाई गई है विजय ईश्वर से बहुत नाराज है इसलिए वो नास्तिक है ट्रेजडी की वजह से विजय नास्तिक बन जाता है आखिर में ईश्वर की दया से जब सब कुछ ठीक हो जाता तब वह नास्तिकता की बुराई से मुक्त होकर एक आदर्श आस्तिक बन जाता है। पुरानी फिल्मों के ज्यादातर खलनायकों को नास्तिक ही दिखाया गया है।
ओह माई गॉड फ़िल्म की बात करें तो यह भी नास्तिकता के दर्शन का मजाक उड़ाने के लिए ही बनी है फ़िल्म का नायक एक ट्रेजडी की वजह से नास्तिक बन जाता है जिसे आस्तिक बनाने की खातिर स्वयं भगवान को धरती पर आना पड़ता है नास्तिकता की इससे ज्यादा फजीहत और किसी फिल्म ने नहीं कि. पीके फ़िल्म भी नास्तिकता की हत्या बड़ी खूबसरती से करती है रॉन्ग नम्बर की आड़ में राइट नम्बर को जस्टिफाई करती यह मूवी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने की हिम्मत नहीं कर पाती और अंत मे यह आस्तिकता को ही प्रमोट करती हुई नजर आती है।
भारतीय सिनेमा पूरी तरह से बाजारवाद पर आधारित है इसलिए यहां सिनेमा का मकसद समाज बदलना नहीं बल्कि पूंजी बनाना है हालांकि कुछ फिल्मों ने सामाजिक बुराइयों को दूर करने की कोशिश भी की है लेकिन वह फिल्में मुख्यधारा की फिल्में कभी नहीं बन पाईं ऐसे में भारतीय सिनेमा के लिए नास्तिकता की महान फिलॉसफी को न समझ पाना कोई बड़ी बात नहीं भारतीय सिनेमा में वह नैतिक साहस ही नहीं जो वह नास्तिकता की फिलॉसफी को छू भी सके।
भगत सिंह जैसे महान नास्तिक के जीवन पर कई फिल्में बनी लेकिन किसी भी फ़िल्म ने भगत सिंह की नास्तिकता को दर्शाने की हिमाकत नहीं भगत सिंह जिंदा थे तब भी उनके विचार धर्म और सत्ता के लिए चुनौती थे आज भी उनके विचार उतने ही क्रांतिकारी हैं इसी वजह से भगत सिंह के विचार आज भी धर्म पूंजीवाद और सत्ता के लिए एक चुनौती ही साबित हो रहे हैं।
नास्तिकता में कोई बुराई नहीं बल्कि यह प्रेम, सत्य, परिवर्तन, ज्ञान और नैतिकता की वह ऊँचाई है जहां साधारण बुद्धि का व्यक्ति पहुंच ही नहीं सकता। इसलिए सिनेमा और पोथियों से अलग हटकर गर्व कीजिये अपने नास्तिक होने पर... बिल्कुल भगत सिंह की तरह।
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