The Bhramjaal में एक बार फिर आपका स्वागत है। [ The Unbiased Real Story of Deepawali] आज की चर्चा दीपावली की असली कहानी क्या है? इस प्रश्...
The Bhramjaal में एक बार फिर आपका स्वागत है। [The Unbiased Real Story of Deepawali] आज की चर्चा दीपावली की असली कहानी क्या है? इस प्रश्न पर केंद्रित है।
क्या ये वही है जो हम सब को बताई गई है? या कुछ ऐसा भी है जो आप में से बहुतों को पता नहीं है। आइए करीब से जानते हैं भारत के इस विशेष पर्व को -
धनतेरस क्या है?
धनतेरस के बारे में कई मान्यताएं हैं। शैव व शाक्त धर्म के लोगों का मानना है कि धनतेरस पर्व भगवान धन्वंतरि की याद में मनाया जाता है। वहीं वैष्णव धर्म के लोग इसे रुपये-पैसे से जोड़कर देखते हैं।
शैव व शाक्त परंपरा को मानने वाले कहते हैं कि धनतेरस के दिन सिर्फ धन्वंतरि की पूजा करनी चाहिए।
पौराणिक कथाओं के अनुसार धन्वंतरि एक चिकित्सक थे। इसलिए धन्वंतरि को 'आरोग्य देवता' भी कहा जाता है। धन्वंतरि से ही सुन के सुश्रुत ने आयुर्वेद की रचना की थी।
- यह बड़ा आश्चर्य है कि जिन संस्कृत ग्रंथों में चिकित्सा कर्म को निषेध कर ब्राह्मणों को यह निर्देश दिया गया कि चिकित्सक का अन्न भी उनके लिए पीव के समान है, उसकी संस्कृति किसी चिकित्सक देवता को कैसे पूज सकती है?
- यह कि, चिकित्सक का पीतल और सोने से क्या सम्बन्ध है? क्या कोई वैद्य पीतल या सोना बेचता था? तो इस दिन पीतल या सोने की खरीदारी क्यों कि जाती है? जबकिं पीतल के काम करने वाले और सुनार का काम करने वालों को वर्णव्यवस्था के अनुसार चौथे पायदान पर रखा गया है।
- क्या धन्वंतरि इसी समाज के थे जो अपना पुश्तैनी व्यापार करते हुए चिकित्सा कर्म भी करते थे? जैसे कबीर जुलाहे का काम करते हुए दोहे भी लिखते थे?
- हो सकता है कि धन शब्द धान से बना हो, धान यानी चावल। क्योंकि अवैदिक लोगों की मुख्य फसल धान थी, जब धान की फसल कट के घर आती थी तो जिसके पास जितना धान होता था उसे उतना धानवान कहते थे। इस शब्द का अपभ्रंश धनवान हो गया। धन्वंतरि यानी धान रखने वाला, औरों से अधिक धान उपजाने के कारण इन्हें धन्वंतरि कहा गया। किन्तु इससे भी ये अवैदिक देवता ही हो जाते हैं क्योंकि कृषि कर्म भी संस्कृत ग्रन्थो ने शूद्रों का कर्म ही घोषित किया गया है।
धन्वंतरि चाहे कोई भी रहे हों, पर वैदिक देवता तो नहीं हो सकते। हो न हो धनवंतरि बौद्ध रहे होंगे, ऐसा इसलिए कि चिकित्सा कर्म बौद्धो का कर्म था, बौद्ध भिक्षु लंबी दूरी तय करते थे। यदि मार्ग में वो बीमार हो जाये तो अपना इलाज स्वयं करना होता था। अतः उन्हें जड़ी बूटियों का ज्ञान होना अनिवार्य होता था।
ऐसे भित्ति चित्र मिले हैं जिनमे दर्शाया गया है कि बौद्ध भिक्खु बीमार पशुओं की चिकित्सा कर रहे हैं। यह तभी हो सकता है जब जड़ी-बूटियों, औषधियों की सही जानकारी हो। जैसा कि ऊपर बताया है कि मनुस्मृति में चिकित्सा कर्म को पाप कर्म कहा गया है, यहां तक कि यह कहा गया है कि ब्राह्मण को चिकित्सक के घर का अन्न नही खाना चाहिये। तब यह कैसे हो सकता था कि जिसके धर्म ग्रन्थ चिकित्सा कार्य को पाप कर्म बताए वह उसी के विरोध में काम करे? कम से कम उस जमाने में ब्राह्मण के लिए यह सम्भव नहीं था।
रोग ठीक करने के कारण धनवंतरि आम जनमानस में सम्मान रखते होंगे, जिससे ब्राह्मण के लिए उन्हें अनदेखा करना सम्भव नही रहा होगा। बाद में जैसे-जैसे बौद्ध परंपरा मलिन होती गई धनवंतरि को ब्राह्मणिक जामा पहनाया जाने लगा।
The Unbiased Real Story of Deepawali
लेखक संजय कुमार बताते हैं कि अल-बेरुनी अपने ऐतिहासिक पुस्तक किताब-उल-हिन्द (अल-बेरुनी का भारत) जो की भारत के इतिहास की एक प्रमाणिक पुस्तक मानी जाती है, में हिन्दुओ के 'त्यौहार एवं आमोद प्रमोद के दिन' अध्याय 76 में लिखते है कि-
"कार्तिक प्रथमा या अमावस्या के दिन जब सूर्य तुला राशि में प्रवेश करता है तो 'दीवाली' होती है।
Al Beruni |
इस दिन लोग स्नान करते हैं, बढियां कपड़े पहनते है, एक दूसरे को पान-सुपारी भेंट देते हैं, घोड़े पर सवार होकर दान देने मंदिर जाते हैं और एक दूसरे के साथ दोपहर तक हर्षोउल्लास के साथ रहते हैं।
रात्रि को वे हर स्थान पर अनेक दीप जलाते हैं ताकि वातावरण सर्वथा स्वच्छ हो जाए।
इस पर्व का कारण यह है कि वासुदेव की पत्नी लक्ष्मी विरोचन के बलि को -जो सातवें लोक में बन्दी है- वर्ष में एक बार इस दिन बंधन मुक्त करती है और उसे संसार में विचरण करने की आज्ञा देती है।
इसी कारण इस पर्व को 'बलिराज्य' कहा जाता है।"
अल-बेरुनी 1017-20 ईसा के मध्य में भारत आए थे और भारत पर अपना ग्रन्थ 1030 ईसा के आस-पास लिखा है, जिसके कुल अस्सी अध्याय हैं।
यदि हम अल-बेरुनी की माने तो वह दीपावली की कहानी जो वर्तमान राम जी के लंका विजय से वापसी की ख़ुशी में अयोध्या वासियों के दीप जलाने की कहानी से अलग है।
अल-बेरुनी के अनुसार उस समय Deepawali राम जी के वापस आने के कारण नहीं अपितु लक्ष्मी की कैद से विरोचन पुत्र बलि की आज़ादी के उपलक्ष्य में मनाई जाती थी और बलि उस दिन संसार में विचरण करता है इसी कारण इस पर्व को उस समय 'बलिराज्य' कहा जाता था।
तब, प्रश्न यह उठता है कि बलिराज्य यानि बलि का लक्ष्मी के बंधन मुक्त हो संसार में विचरण करने की मान्यता में राम कथा बाद के किस ईसा में जोड़ी गई होगी?
अल-बेरुनी लक्ष्मी को वासुदेव की पत्नी तो कहते है किंतु राम और सीता जी का जिक्र कही नहीं करते।
गौरतलब है की विरोचन पुत्र बलि वही दानवीर दैत्यराज बलि है जिसको धोखे से परास्त करने के लिए विष्णु जी ने वामन रूपी ब्राह्मण वेश धरा था और धोखे से तीन पग भूमि मांगी थी।
कालांतर में पता नही कब इस पर्व को राम कथा से जोड़ दिया गया !
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