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शिक्षा में धर्म का संक्रमण खतरनाक क्यों?

धर्मग्रंथों की शिक्षाएं समाज के किसी काम की नहीं होतीं लेकिन इस से मुल्लाओं और पुरोहितों की फौज जरूर खड़ी हो जाती है। धार्मिक शिक्षण संस्थानो...

धर्मग्रंथों की शिक्षाएं समाज के किसी काम की नहीं होतीं लेकिन इस से मुल्लाओं और पुरोहितों की फौज जरूर खड़ी हो जाती है। धार्मिक शिक्षण संस्थानों से पढ़ कर निकले स्नातक धार्मिक व्यवस्था में रोजगार तो पा लेते हैं लेकिन सैलरी बहुत कम होती है। मौजूदा सरकार भी आज विज्ञान को ख़त्म कर धार्मिक शिक्षाओं को पाठ्यक्रमों में ठूंस रही है।

आधुनिक शिक्षा और धर्म का कोई ताल-मेल नहीं। सभी धर्मों के अपने शिक्षण संस्थान हैं जिन का नियंत्रण पूरी तरह धार्मिक व्यवस्था के हाथों में है। भारत का संविधान सभी धर्मों को अपनेअपने हिसाब से अपनी धार्मिक शिक्षाओं के प्रसारप्रचार की आजादी देता है। गुरुकुल और मदरसों में धर्म की शिक्षा दी जाती है। इन धार्मिक संस्थानों में क्या पढ़ाया जाए, यह धार्मिक व्यवस्था तय करती है. इस में सरकार का हस्तक्षेप नहीं होता। यहां धार्मिक ग्रंथों को रटवाया जाता है. धार्मिक संस्कार सिखाए जाते हैं जब कि इन का संबंध मनुष्य की जिंदगी से नहीं होता।

धर्मग्रंथों की शिक्षाएं समाज के किसी काम की नहीं होती लेकिन इस से मुल्लाओं और पुरोहितों की फौज जरूर खड़ी हो जाती है। धार्मिक शिक्षण संस्थानों से पढ़ कर निकले स्नातक धार्मिक व्यवस्था में रोजगार पा लेते हैं। मदरसे से मौलवी बन कर निकले व्यक्ति को किसी मस्जिद में या मदरसे में जॉब मिल जाती है। गुरुकुल से पुरोहित की शिक्षा हासिल करने वाले को भी किसी न किसी धार्मिक अड्डे पर रोजगार मिल जाता है लेकिन दोनों जगह सेलरी बहुत कम होती है जिस से खर्चे पूरे नहीं होते।

आजकल के मुल्ला, पादरी और पुरोहितों की सोच भले ही उन के धर्म जितनी पुरानी हो पर लाइफस्टाइल बिलकुल मॉर्डन होता है। हाथ में एंड्रॉयड फोन और घर में आधुनिक सुविधाएं सभी को चाहिए लेकिन धार्मिक संस्थानों की जॉब से मॉर्डन लाइफस्टाइल को मेंटेन करना मुश्किल होता है। इस का समाधान यह है कि पुरोहितों को स्कूल-कालेजों में भी जॉब मिल जाए। लेकिन यह होगा कैसे? स्कूल-कालेजों की व्यवस्था बिलकुल अलग होती है। स्कूल-कालेजों में वो विषय पढ़ाए जाते हैं जिन का संबंध रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़ा होता है।

यहां धार्मिक शिक्षा का कोई काम नहीं। लेकिन आधुनिक शिक्षण संस्थान या तो निजी हैं या सरकार के नियंत्रण में हैं। प्राइवेट शिक्षण संस्थानों में क्या पढ़ाना है, यह सरकार तय करती है और जो सरकार धर्म के नाम पर ही सत्ता में आई हो उस के लिए तो शिक्षा को बदलना ही सब से जरूरी काम है।

शिक्षा में धर्म और शिक्षण संस्थाओं में पुरोहितों को फिट करने से ही भविष्य की पीढ़ियों में धार्मिक कट्टरता भरी जा सकती है। दुनियाभर की कट्टरपंथी सरकारों के लिए शिक्षा का धार्मिकीकरण करना पहला काम होता है और जब शिक्षा पूरी तरह धर्म के रंग में रंग जाए तो शिक्षण संस्थानों में पुरोहितों को फिट करना अगला कदम होता है।

राष्ट्रवाद और हिंदू गौरव के पुनरुत्थान के नाम पर सत्ता में आई बीजेपी के कोर एजेंडे में शिक्षा का भगवाकरण शामिल है। बीजेपी की सरकार ने 2014 में सत्ता में आने के बाद से ही शिक्षा को निशाना बनाना शुरू कर दिया। पाठ्यक्रम बदले गए। इतिहास बदला गया। विज्ञान की दुर्गति की गई और अब स्कूलों में श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ाई जा रही है।

हाल ही में गुजरात सरकार ने विधानसभा में प्रस्ताव पारित किया है जिस के अनुसार कक्षा 6 से 12वीं तक के पाठ्यक्रम में श्रीमद्भगवद्गीता को शामिल किया गया है। गुजरात के शिक्षा मंत्री प्रफुल्ल पंसेरिया ने कहा कि “पूरे विश्व में गीता की विचारधारा है। गीता एक पथ है, हम ने इस संकल्प को सदन में रखा और सभी ने समर्थन किया। यह बिना विरोध के पास हो गया। स्कूल स्टूडैंट्स को श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ाने का मकसद उन्हें भारत की समृद्ध और विविधताभरी संस्कृति, ज्ञान प्रणाली और परंपराओं से रूबरू कराना, उन से जोड़ना है और उन में गर्व की भावना भरना है।”

खुमैनी और जियाउल हक ने सत्ता में आते ही सब से पहले स्कूली शिक्षा को नष्ट किया था। Syllabus में कुरान को जबरन घुसेड़ा गया। इस्लामिक शिक्षा को पाठ्यक्रमों में ठूंसा गया। आधुनिक शिक्षा में मजहब की घुसपैठ का परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे इस्लामिक शिक्षा ने आधुनिक शिक्षा को हड़प लिया।

दक्षिणपंथियों के लिए इस के दो फायदे हुए। एक तो शिक्षा से पैदा होने वाली वैज्ञानिक चेतना नष्ट हो गई, दूसरा यह कि शिक्षण संस्थानों में मौलवियों के दाखिल होने के रास्ते खुल गए। बेरोजगार या कम सैलरी में गुजारा करने वाले मौलवियों को सरकारी नौकरियां मिलने लगीं और इन मौलवियों ने स्कूल-कालेजों में घुस कर मुल्क की भावी नस्लों में धार्मिक कट्टरता का जहर भर दिया।

दक्षिणपंथी, चाहे वो खुमैनी हों, ट्रंप हों, जियाउल हक हों या फिर नरेंद्र मोदी सभी की सोच एक जैसी होती है। शिक्षा से सभी को डर लगता है। इन सब के लिए धर्म की आड़ में वैज्ञानिक चेतना का गला घोंटना जरूरी हो जाता है। दुनियाभर के दक्षिणपंथियों के लिए शिक्षा को भ्रष्ट करना पहली प्राथमिकता होती है ताकि वे समाज को अपनी मानसिकता के सांचे में ढाल सकें।

सत्ता और धर्म का गठजोड़ लोकतंत्र के लिए खतरा

लोकतंत्र का मतलब होता है जनता के लिए, जनता द्वारा संचालित होने वाली व्यवस्था. जिस में न्याय के पैमाने पर सभी नागरिक समान हों और इस व्यवस्था में सभी के अधिकार बराबर हों. यह तभी संभव है जब इस व्यवस्था में धर्म का हस्तक्षेप न हो. एक लोकतांत्रिक देश में कई धर्म के लोग समानता और न्याय हासिल कर सकते हैं लेकिन धर्म में लोकतंत्र के लिए कोई स्थान नहीं होता।

धर्म लोकतंत्र का दुश्मन होता है. धर्म में समानता और न्याय सब के लिए बराबर नहीं. हिंदू धर्म वर्णव्यवस्था पर आधारित है. इस में शूद्र और स्त्री के अधिकार द्विजों और मर्दों के बराबर नहीं हैं. इसलाम में औरतों के अधिकार मर्दों से कमतर हैं तो गैरमुसलिमों के अधिकार मुसलमानों के बराबर नहीं हैं. ईसाई धर्म की भी यही स्थिति है. यदि किसी लोकतांत्रिक देश में इन में से कोई भी धर्म इतना ताकतवर हो कि वह सत्ता के नीतिनिर्धारण में हस्तक्षेप करने लगे तो उस देश का लोकतंत्र ही संकट में पड़ सकता है।

किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र में सत्ता और धर्म एकसाथ नहीं हो सकते. इतिहास में, सत्ता में धर्म के संक्रमण को रोकने के लिए बड़ी क्रांतियां हुई हैं।

मध्यकाल के यूरोप में धर्म और सत्ता के बीच गठजोड़ था. चर्च इतना शक्तिशाली था कि सत्ता के नियम और सत्ता द्वारा जनता के लिए बनाए जाने वाले नियमों पर सीधी निगरानी रखता था।

16वीं और 17वीं शताब्दियों में पुनर्जागरण आंदोलनों ने चर्च की शक्ति को कमजोर किया जिस से सत्ता पर चर्च का नियंत्रण भी कमजोर हुआ. 1789 में फ्रांसीसी क्रांति ने धर्म और सत्ता के बीच के संबंध को पूरी तरह से बदल दिया. फ्रांसीसी क्रांति के बाद फ्रांस में धर्म को सत्ता से पूरी तरह अलग कर दिया गया. फ्रांसीसी क्रांति का असर पूरे यूरोप में हुआ और सत्ता से धर्म को पूरी तरह बेदखल कर दिया गया. 1787 में अमेरिकी संविधान के पहले संशोधन में ही धर्म और सत्ता के बीच के संबंध को खत्म कर दिया गया।

धर्म का सत्ता से बेदखल होने का परिणाम यह हुआ कि राज्य की नीतियों पर धर्म का कंट्रोल खत्म हुआ. इस से राज्यों द्वारा दी जाने वाली शिक्षा व्यवस्था में बड़ी क्रांति आई. धर्म से मुक्त होते ही शिक्षा में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का समावेश होने लगा जिस से यूरोप में वैज्ञानिक चेतना के नए दौर की शुरुआत हुई और यूरोप ज्ञान, विज्ञान, तकनीक व डैमोक्रेसी के क्षेत्र में पूरी दुनिया का नेतृत्व करने लगा।

1950 में भारतीय संविधान ने भी धर्म और सत्ता के बीच के संबंध को परिभाषित किया. संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 में धर्म और राज्य के बीच के संबंध को नियंत्रित रखने का प्रावधान किया गया है ताकि सत्ता के मामलों में धर्म की भूमिका खत्म हो।

इतिहास में ऐसा देखा गया है कि जो भी लोग राष्ट्रवाद और धर्म का सहारा ले कर सत्ता पर काबिज होते हैं वे सब से पहले शिक्षा को बरबाद करते हैं. शिक्षा में धर्म के संक्रमण से भविष्य की पीढ़ियां धार्मिक कट्टरता का शिकार होती हैं और इस तरह लोकतंत्र बरबाद हो जाता है. इतिहास में पाकिस्तान और ईरान को हम ने इसी तरह कट्टरपंथ का शिकार होते देखा और अब भारत और अमेरिका भी इसी रास्ते पर चल निकले हैं।

अमेरिकी शिक्षा में धर्म की घुसपैठ

डोनाल्ड ट्रंप अपने चुनाव प्रचार के दौरान हाथ में बाइबिल लिए अमेरिकी गौरव की बातें करते नजर आए। वे राष्ट्रवाद और धर्म का सहारा ले कर ही सत्ता में आए हैं और सत्ता में आते ही शिक्षा में धर्म को घुसाने के प्रयास करने लगे हैं।

अमेरिका के टेक्सास में टेक्सास राज्य शिक्षा बोर्ड ने इसी मार्च में ब्लूबोनेट पाठ्यक्रम के तहत टेक्सास के सरकारी स्कूलों में ईसाई धर्म की शिक्षाओं को पढ़ाए जाने का प्रस्ताव पास किया है. टेक्सास राज्य शिक्षा बोर्ड ने किंडरगार्डन से 5वीं कक्षा तक के विद्यार्थियों के लिए एक विवादास्पद, बाइबिल आधारित पाठ्यक्रम को मंजूरी दे दी है. टेक्सास के स्कूलों को ‘ब्लूबोनेट’ पाठ्यक्रम के तहत बाइबिल पढ़ानी होगी. हालांकि यह अनिवार्य नहीं है लेकिन ऐसा करने पर उन्हें बाइबिल खरीदने के लिए प्रति छात्र 40 डौलर की दर से वित्तीय प्रोत्साहन राशि मिलेगी. इस नए पाठ्यक्रम को अगस्त 2025 से टेक्सास में लागू किया जाएगा।

टेक्सास अमेरिकीन फैडरेशन औफ टीचर्स ने इस पाठ्यक्रम का विरोध किया और एक लिखित बयान में कहा, “नए पाठ्यक्रम के नाम पर स्कूलों में जो किताबें भेजी जा रही हैं उन में बाइबिल की अनावश्यक मात्रा है। सरकार का यह कदम न केवल चर्च और राज्य को आपस में मिलाता है बल्कि यह हमारी कक्षा की शैक्षणिक स्वतंत्रता का और हमारे शिक्षण पेशे की पवित्रता का उल्लंघन भी है।”

इसी प्रकार के प्रयास अमेरिका के सभी रिपब्लिकन प्रभुत्व वाले राज्यों में भी किए जा रहे हैं. टेक्सास की तर्ज पर ही लुइसियाना में भी वहां के सभी राजकीय विद्यालयों में बाइबिल को प्रदर्शित करने का प्रस्ताव पारित किया गया है लेकिन लुइसियाना के अभिभावक समूह सरकार के इस फैसले के खिलाफ कोर्ट में पहुंच गए और कोर्ट ने फिलहाल इस पर रोक लगा दी है।

हाल ही में ओक्लाहोमा के प्रमुख शिक्षा अधिकारी रयान वाल्टर्स ने घोषणा की कि सरकारी हाईस्कूलों के लिए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा प्रकाशित बाइबिल की 500 प्रतियां खरीदी गई हैं. रयान वाल्टर्स बाइबिल को राष्ट्र का ‘आधारभूत दस्तावेज’ मानते हैं, कहते हैं, “बाइबिल हमारी सभ्यता का एक आधारभूत दस्तावेज है, इसलिए छात्रों को इसे अच्छी तरह से समझना चाहिए ताकि वे सुशिक्षित नागरिक बन सकें।”

रयान वाल्टर्स ने स्कूलों को आदेश दिया कि वे 5वीं से 12वीं कक्षा के छात्रों को बाइबिल की शिक्षा देने की व्यवस्था करें लेकिन ओक्लाहामा के अभिभावक संगठनों ने सरकार की इस योजना के खिलाफ ओक्लाहोमा सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा दायर किया जिस से लुइसियाना में शिक्षा में धर्म के संक्रमण पर फिलहाल रोक लग गई है।

मुल्लाओं की क्रांति में बरबाद हुआ ईरान

ईरान का उदाहरण हमारे सामने है। आज से 90 साल पहले यानी 1936 का ईरान आज के ईरान से अलग था। आज ईरान में शरिया कानून लागू है, महिलाएं आजादी के लिए तड़प रही हैं। हिजाब न पहनने पर औरतों को पुलिस उठा ले जाती है। हिजाब के खिलाफ लड़कियां सड़कों पर उतरने को मजबूर हो गई हैं लेकिन 90 साल पहले ईरान ऐसा नहीं था। तब ईरान में पहलवी वंश के रेजा शाह का शासन था। रेजा शाह ने शिक्षा में सुधार किया। उन्होंने ईरान में पश्चिमी देशों की शिक्षा नीति अपनाई और शिक्षा में वैज्ञानिक चेतना को महत्त्व दिया।

रेजा शाह को हिजाब और बुर्का पसंद नहीं था। शाह ने हिजाब पर बैन लगा दिया। महिलाओं की आजादी के रास्ते में यह कदम बहुत क्रांतिकारी साबित हुआ। ईरान बदल गया। औरतें यूनिवर्सिटीज में पहुंचने लगीं। नौकरियों में औरतों की भागीदारी हुई और जल्द ही ईरानी समाज पश्चिमी दुनिया की बराबरी में खड़ा हो गया। औरतों की यह आजादी अयातुल्लाह खुमैनी जैसे मुल्लाओं को हजम नहीं हुई। उन्होंने रेजा शाह के खिलाफ मोर्चा खोल दिया।

ईरानी जनता के सामने खुमैनी ने रेजा पहलवी को अमेरिका के हाथों की ‘कठपुतली’ साबित करने का प्रोपगंडा किया और एक दशक के प्रोपगंडे का असर यह हुआ कि साल 1978 तक ईरानी जनता रेजा शाह को अमेरिका का पिट्ठू समझने लगी. रेजा पहलवी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन होने लगे. इन प्रदर्शनों का नेतृत्व मौलवियों ने संभाल लिया. जनवरी 1979 आतेआते ईरान में गृहयुद्ध के हालात बन गए और फरवरी 1979 में खुमैनी ने अपनी सरकार बनाने का ऐलान कर दिया। इस तरह अयातल्लाह खुमैनी ईरान के सब से ताकतवर नेता बन गए।

इस इस्लामिक क्रांति से पहले ईरान में पश्चिमी देशों जितना ही खुलापन था। महिलाओं को अपनी पसंद के कपड़े पहनने की आजादी थी. औरतें नौकरियों में थीं। मर्दों से कंधा मिला कर चल सकती थीं लेकिन मुल्ला क्रांति ने ईरान की महिलाओं को कैद कर दिया।

खुमैनी के हाथों में सत्ता आते ही नए संविधान पर काम शुरू हो गया। नया संविधान इस्लाम और शरिया पर आधारित था। सत्ता में आते ही खुमैनी ने सब से पहले शिक्षा पर धावा बोला। इतिहास की किताबें बदल दी गईं।  इस्लामिक शिक्षा को पाठ्यक्रमों में फिट किया गया। शिक्षण संस्थानों में मुल्लाओं की भर्ती होने लगी और महिलाओं को यूनिवर्सिटीज से दूर कर दिया गया। औरतों की आजादी छीन ली गई। हिजाब पहनना जरूरी हो गया। 1995 में ऐसा कानून बनाया गया जिस के तहत 60 साल तक की औरतों को बिना हिजाब के घर से निकलने पर जेल में डालने का प्रावधान है। हिजाब न पहनने पर 74 कोड़े मारने से ले कर 16 साल की जेल तक की सजा हो सकती है।

ईरान की मुल्ला क्रांति के 45 साल बाद ईरान में अब अयातुल्लाह रूहुल्लाह खुमैनी के उत्तराधिकारी अली खामेनाई सत्ता में हैं। ईरान में सख्त शरिया कानून लागू हैं। लेकिन अब हालात बदल रहे हैं। ईरान में महिलाएं अपने बाल काट रही हैं। सुरक्षाबलों के सामने अपने हिजाब उड़ा रही हैं और उन्हें गिरफ्तार करने की चुनौती दे रही हैं। सरकार के खिलाफ नारेबाजी हो रही है। शहर के शहर जल रहे हैं। सरकार प्रदर्शनकारियों को दबाने के लिए लाठीचार्ज कर रही है।

ईरान में ‘एंटी हिजाब’ मूवमैंट तेज हो गया है. महिलाएं अपनी छीनी गई आजादी मांग रही हैं। पुरुष भी उन का साथ दे रहे हैं। अफसोस यह है कि मुल्लाओं के प्रोपगंडे को समझने में जनता को चार दशक लग गए।

जियाउल हक ने कैसे बरबाद किया पाकिस्तान?

5 जुलाई, 1978 को पाकिस्तान में भी एक मुल्ला क्रांति हुई थी जब जनरल जियाउल हक ने जनता द्वारा चुने गए प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो का तख्तापलट कर खुद सत्ता हथिया ली थी. जियाउल हक ने भी खुमैनी का अनुसरण किया और जनता को धर्म की अफीम का ओवरडोज देना शुरू कर दिया।

सत्ता में आते ही जियाउल हक ने सब से पहले शिक्षा का इस्लामीकरण करना शुरू किया। मदरसे के ग्रेजुएट लोगों को स्कूलों में नौकरी दी गई ताकि बच्चों को इसलाम पढ़ाया जा सके। उलेमाओं को यूनिवर्सिटीज में भेजा गया।  पाठ्यक्रम में बदलाव किए गए। नया इतिहास पढ़ाया जाने लगा जिस में मुहम्मद बिन कासिम और मुहम्मद गजनवी को पाकिस्तान का नायक घोषित किया गया।

पाक की अदालतें शरिया कानून से चलने लगीं। जिलाउल हक ने पाकिस्तान में सब से विवादित ‘हुदूद’ अध्यादेश को लागू किया, जिस का सब से बड़ा खमियाजा औरतों ने भुगता। हुदूद कानून के तहत दुष्कर्म के बदले दुष्कर्म की सजा दी जाती। अगर किसी की बहन का दुष्कर्म होता तो फरियादी भी आरोपी की बहन से दुष्कर्म कर सकता था। अहमदिया को गैर-मुस्लिम घोषित कर दिया गया। उन के मस्जिद में जाने पर भी पाबंदी लगा दी गई थी। जियाउल हक के शासन के दौरान बेटियों के नाम पैगंबर मुहम्मद के परिवार की औरतों के नाम पर नहीं रख सकते थे। जियाउल हक ने Blasphemy कानून को सख्त कर दिया और मौलवियों को खुली छूट दे दी। मौलवी इतने ताकतवर हो गए कि अल्पसंख्यकों का जीना मुश्किल हो गया। Blasphemy की आड़ में किसी को भी मौत की सजा दिलवाना आम बात हो गई।

जियाउल हक का मानना था कि पश्चिम का सारा विज्ञान कुरान और हदीसों से निकला है। जनरल जियाउल हक ने इस्लामिक साइंस से दुनिया को बदलने के नाम पर पाकिस्तान की जनता के टैक्स के रुपयों से दो बड़ी अंतर्राष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस करवाईं। इन कॉन्फ्रेंसों का मकसद था कुरान और हदीसों में छिपी हुई साइंस को निचोड़ कर बाहर निकालना। दोनों कॉन्फ्रेंसों में पाकिस्तान और दूसरे मुस्लिम देशों से मुस्लिम वैज्ञानिकों को बुलाया गया। ये तथाकथित वैज्ञानिक अंदर से मुल्ला ही थे।

काहिरा की अल अजहर यूनिवर्सिटी के मोहम्मद मुतलिब ने साबित किया कि आइंस्टीन की थियरी ऑफ रिलेटिविटी बकवास है, असल में पृथ्वी अपने भ्रमण पथ पर इसलिए ठीक-ठाक घूम रही क्योंकि पहाड़ों ने पृथ्वी के सीने पर पैर जमा कर उस का संतुलन बनाए रखा है।

डिफेंस साइंस एंड टेक्नोलॉजी संस्था के डाक्टर सफदरजंग राजपूत ने बड़े अनुसंधान के बाद साबित किया कि मांस से बने इंसान के साथ-साथ आग से बने जिन्न भी हमारे आजू-बाजू रहते हैं मगर उन से धुआं इसलिए नहीं निकलता क्योंकि उन का जिस्म मीथेन गैस से बना है।

पाकिस्तान एटॉमिक एनर्जी कमीशन के एक वैज्ञानिक बशीरूद्दीन महमूद के पेपर का निचोड़ यह था कि जिन्न आग से बने हैं अगर उन्हें किसी तरह काबू कर लिया जाए तो उन की एनर्जी से भारी मात्रा में बिजली पैदा की जा सकती है।

जवाहरलाल नेहरू का वैज्ञानिक दृष्टिकोण

वर्ष 1938 में भारतीय विज्ञान कांग्रेस की एक बैठक में जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, “विज्ञान जीवन की वास्तविक प्रकृति है। केवल विज्ञान की सहायता से ही भूख, गरीबी, निरक्षरता, अंधविश्वास, खतरनाक रीतिरिवाजों, दकियानूसी परंपराओं, बरबाद हो रहे हमारे विशाल संसाधनों और भूखे मगर संपन्न विरासत वाले लोगों की समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। आज की स्थिति से अधिक संपन्न भविष्य उन लोगों का होगा जो विज्ञान के साथ अपने संबंध को मजबूत करेंगे। भारत के उज्ज्वल भविष्य के लिए विज्ञान ही एकमात्र कुंजी है।”

जवाहरलाल नेहरू का मानना था कि हमारी गरीबी और गुलामी के मूल कारणों में अंधविश्वास, धार्मिक रूढ़िवादिता और तर्कहीनता पर आधारित हमारी परंपराएं शामिल थीं, इसलिए उन्होंने 1958 में देश की संसद में विज्ञान और प्रौद्योगिकी नीति को प्रस्तुत करते समय वैज्ञानिक दृष्टिकोण को आधार बनाया।

‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में जवाहरलाल नेहरू लिखते हैं, ‘आज के समय में दुनिया के लिए विज्ञान को प्रयोग में लाना अनिवार्य है लेकिन एक चीज विज्ञान के प्रयोग में लाने से भी ज्यादा जरूरी है और वह है वैज्ञानिक विधि जो कि बेहद जरूरी है। इस से वैज्ञानिक दृष्टिकोण पनपता है, यानी, सत्य की खोज और नया ज्ञान, बिना जांचेपरखे किसी भी चीज को न मानने की हिम्मत, नए प्रमाणों के आधार पर पुराने नतीजों में बदलाव करने की क्षमता, पहले से सोच लिए गए सिद्धांत के बजाय प्रमाणित तथ्यों पर भरोसा करना, मस्तिष्क को एक अनुशासित दिशा में मोड़ना आदि सब नितांत आवश्यक हैं।

‘केवल इसलिए नहीं कि इस से विज्ञान का इस्तेमाल होने लगेगा बल्कि स्वयं के जीवन के लिए और इस की बेशुमार उलझनों को सुलझाने के लिए भी यह जरूरी है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण मानव को वह मार्ग दिखाता है जिस पर उसे अपनी जीवनयात्रा करनी चाहिए। यह दृष्टिकोण एक ऐसे व्यक्ति के लिए हैं जो बंधनमुक्त है, स्वतंत्र है।’

जवाहरलाल नेहरू की शिक्षा नीति का मुख्य उद्देश्य भारत के भविष्य को वैज्ञानिक दृष्टिकोण देना था जिस से भविष्य का भारत एक विकसित राष्ट्र बन सके क्योंकि विकास का मार्ग तार्किकता से ही आरंभ होता है। आज भारत में बीजेपी की धुर दक्षिणपंथी सरकार सत्ता में है, जो नेहरूजी की इस व्यावहारिक और तार्किक सोच के उलट काम करती है।

बीजेपी को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से नफरत है। यह भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरनाक स्थिति है। भारतीय समाज में वैज्ञानिक चेतना की रहीसही कसर भी बाकी न रहे, इस के लिए बीजेपी सरकार शिक्षा को अपनी विचारधारा के अनुरूप ढालने में लिप्त है।

जेएनयू जैसे बड़े शिक्षण संस्थानों को बरबाद किया जा रहा है. इतिहास की किताबें बदली जा रही हैं. विज्ञान की किताबों में कहानियां फिट की जा रही हैं. चार्ल्स डार्विन जैसे वैज्ञानिकों को पाठ्यक्रम से हटाया जा रहा है। जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को प्रमोट करने के लिए बने रिसर्च इंस्टिट्यूट में विज्ञान का मजाक उड़ाया जा रहा है।

अभी हाल ही में दिल्ली के इंडियन इंस्टिट्यूट औफ साइंस एंड टैक्नोलौजी ने सरकारी पैसों से एक ऐसे वर्कशौप का आयोजन किया जिस में 200 वैज्ञानिकों ने पंचगव के इंसानी फायदे पर रिसर्च के लिए अलग से गौविज्ञान विश्वविद्यालय बनाए जाने का प्रस्ताव पेश दिया. इस वर्कशौप में उत्तराखंड के वेटरिनरी प्रोफैसर आर एस चौहान ने 4 गायों पर रिसर्च कर के साबित किया कि गाय के पेशाब से कैंसर का इलाज संभव है।

राजस्थान के शिक्षा मंत्री वासुदेव देवनानी ने कहा कि गाय अकेला ऐसा पशु है जो ऑक्सीजन अंदर ले जाता है और ऑक्सीजन ही बाहर निकालता है। भारत में साइंस की ऐसी दुर्गति को देख कर जियाउल हक की याद आ जाती है।

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