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हिंदुओं को संदेह का लाभ क्यों मिलना चाहिए?

The Bhramjaal में एक बार फिर आपका स्वागत है। आज की चर्चा में हम जानेंगे कि हिंदुओं को संदेह का लाभ क्यों मिलना चाहिए? Benefit of Doubt : आप...

Benefit-Doubt

The Bhramjaal में एक बार फिर आपका स्वागत है। आज की चर्चा में हम जानेंगे कि हिंदुओं को संदेह का लाभ क्यों मिलना चाहिए?

Benefit of Doubt : आप कहते हैं हिंदुओं पर लिखो, उनके अन्दर सैकड़ों बुराई हैं। बचपन से लेकर आज तक के जीवन में मेरा सैकड़ों हिंदुओं के साथ उठना-बैठना रहा, लंगोटिया यारी तक रही है। मुझे आज तक एक भी हिन्दू ऐसा नहीं मिला, जो अपने ही धर्म पर टीका-टिप्पणी न करता हो या करने वाले से नाराज़ हो जाता हो। आप अपने हिन्दू दोस्त से पूछिए, उसके भीतर धर्म को लेकर कोई कट्टरता नहीं मिलेगी।

मेरे हिन्दू मित्र अपने पिता या अपने माँ से राम को लेकर टीका-टिप्पणी करते हैं। राम की कुछ बातों पर उन पर इल्ज़ाम लगाते हैं कि उन्होंने ये सही नहीं किया था। भगवान और महापुरुषों की ऐसी बातों को, जो हमारे समाज के हिसाब से ग़लत हैं, उस पर बोलते हैं। उस पर आपस में बात करते हैं।

मेरे मित्र अपने पिता से यहां तक कह देते हैं कि क्या पूजा-अर्चना में वक़्त जाया रहते हो, यह सब ढोंग के सिवा कुछ नहीं है। उनके पिता हंसते रहते हैं, भगवान और धर्म की ग़लत बातों पर लड़के अपने माँ-बाप से बहस तक कर लेते हैं। जिन्हें पूजा नहीं करनी होती है, वो नहीं करते हैं। लेकिन उनके घर में कोई भी उनके पीछे नहीं पड़ता न ही कोई दबाव या ज़बरदस्ती करता है। जिसे भी धर्म नहीं मानना होता, वो नहीं मानता है। उनके घर वाले, उनके पड़ोसी या रिश्तेदार उन सब को कभी भला-बुरा नहीं कहते। कोई भी हिन्दू चाहे बौद्ध हो जाये, चाहे जैन या सिख, ज़्यादातर के घर वालों को इससे घंटा फ़र्क नहीं पड़ता है। लेकिन इन सबको इस्लाम से बस इशू रहता है। लेकिन इसके लिए भी लड़के अपने कट्टर से कट्टर माँ-बाप को भी राज़ी कर ले लेते हैं। आप खुद देखिये बड़े-बड़े आरएसएस पदाधिकारियों के मुस्लिम रिश्तेदार हैं। क्यों?

वहीं किसी मुस्लिम से पूछ लीजिये कि उनके नबी में कोई बुराई थी या नहीं? सब दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।

धर्म और समाज को लेकर इस स्तर का लचीलापन आपके यहाँ आने में अभी शायद 500 साल और लग जाएगा। जब आ जायेगा तो हम जैसे लोग लिखना क्या, इस्लाम पर बात करना भी बंद कर चुके होंगे।

मुझे ये ना समझाइए कि बौद्ध हो गए हो तो अपने धर्म की बात करो। बिल्कुल अपने ही धर्म की बात कर रहा हूँ।

ईरान से लेकर अफगानिस्तान तक में एक भी बौद्ध नहीं बचा, कोई बौद्ध विहार नहीं बचा, सब कुछ ख़त्म हो गया, तो उसके लिए हिंदुओं की धार्मिक कट्टरता को कोसा जाय, या आपकी?

बौद्धों के साथ यहां जो हुआ उस पर हजारों लोग लिख चुके हैं और लिख रहे हैं, लड़ रहे हैं। लेकिन कोई हिन्दू उन्हें मार नहीं डाल रहा है। भारत में बौद्धों पर कितना भी ज़ुल्म हुआ हो लेकिन उनका अस्तित्व कभी नहीं ख़त्म किया गया। वहीं आपके हर देश से बौद्धों समेत सब का अस्तित्व ही ख़त्म कर दिया गया। इसलिए इस पर लिखना हम सबका कर्तव्य है। ये हम सबके अस्तित्व का सवाल है। क्योंकि आपकी मज़हबी सोच हम सबके अस्तित्व के लिए खतरा है।

जैसे हर समाज में बुराईयां होती हैं, वैसे ही हिन्दू समाज में भी विद्द्यमान हैं। और ऐसे ही मुस्लिम समाज में भी हैं। मेरा कोई भी कटाक्ष या विश्लेषण मुस्लिम समाज में व्याप्त अन्य बुराईयों को लेकर नहीं रहता, क्योंकि जैसे अन्य समाज में बुराईयां है वैसे ही उसमें हैं। जात-पात वहां भी है। दहेज और अन्य समस्याएं वहां भी हैं। ऊंच-नीच वहां भी हैं।

मुस्लिम समाज सिर्फ़ धार्मिक कट्टरता की वजह से मेरी आलोचना का शिकार रहा है, और रहेगा। सिर्फ़ मैं ही नहीं दुनिया के हर कोने के लोग ‘धार्मिक कट्टरता’ की वजह से इस समाज को निशाना बनाते हैं।

हिन्दू समाज में अगर कोई बुराई इस दर्जे की है, जैसी मुस्लिम समाज में धर्म को लेकर है तो वह है ‘छुआ-छूत और वर्ण-व्यवस्था’। किन्तु मैं ‘Benefit of the doubt’ हिन्दू समाज को इसलिए देता हूँ क्योंकि इन में बदलाव के निरंतर प्रयास होते रहते हैं।

आप खुद ही समझिए, अगर बाबा साहब अम्बेडकर जैसा व्यक्ति पाकिस्तान में होता और शियों और अहमदियों पर हुए ज़ुल्म की वजह से उनको आरक्षण दिलाता तो वहां क्या हाल हुआ होता?

सुन्नी और वहाबियों वहां इतने बम दाग चुके होते, कि आप कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। वहां के हर प्रदेश में इस तरह का ख़ून-ख़राबा मचा होता जिसे आप सोच भी नहीं सकते हैं। पाकिस्तान छोड़िये, भारत में शिया और अहमदिया इतना दब कर और डर कर रहते हैं कि क्या बताया जाए!

एक वसीम रिज़वी की वजह से कल्बे सादिक़ को सुन्नियों से माफ़ी मांगनी पड़ी थी। ये उनका डर था, क्योंकि वसीम रिज़वी जैसा सोचते-समझते हैं वैसी ही सारे शिया समाज की सोच है। ख़लीफ़ाओं की वजह से आज तक शिया समुदाय क़ुरआन को पूरी किताब नहीं मानता है। लेकिन वसीम रिज़वी के साथ उसका ही समाज नहीं खड़ा हुआ। क्यों?

सिर्फ डर की वजह से... अब सोचिये, कोई सोच सकता है... मुस्लिम समाज के दबे-कुचले लोगों को आरक्षण देने की बात? देने का छोड़िये, वहां के दबे-कुचले लोग आरक्षण लेने के लिए अपनी आवाज़ भी नहीं उठा सकते हैं।

तो बाबा साहब जैसे व्यक्ति सिर्फ भारत में ही पैदा हो सकते थे। उन्हें इतना बड़ा काम करने की आज़ादी सिर्फ़ हिन्दू समाज में ही मिल सकती थी।

क्या उस दौर में बिना हिंदुओं के सपोर्ट के ये आरक्षण व्यवस्था संभव थी? आप देखिए कि यहां आज जितने मोदी समर्थक हैं उस से कम मात्रा में मोदी विरोधी नहीं हैं। यह सब हमारे देश में ही संभव है। ये हिन्दू समाज में ही संभव है। इस्लामिक समाज में तो आप इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं।

इसलिये मेरे हिसाब से आज नहीं तो कल हिन्दू समाज इस वर्ण व्यवस्था से भी छुटकारा पा ही लेगा। भले वो आंदोलनों से हो, विरोध से हो, आपसी सहमति से हो या फिर बातचीत से हो। लेकिन ये होगा अवश्य! थोड़ी अफ़रा-तफ़री मचेगी.. लेकिन यह देश सीरिया और लीबिया नहीं बनेगा। क्योंकि इस समाज के अन्दर सच सुनने और अपने को बदलने की क़ुव्वत अभी भी मौजूद है। यह समाज अपने धर्म पर बहस कर सकता है। यह समाज अपनी रीतियों-कुरीतियों पर बहस कर सकता है, क्योंकि यहां कुछ भी आसमानी नहीं है, कुछ भी जड़ नहीं है। सब चेतन है, और चेतन में हमेशा बदलाव संभव होता है।

~ सिद्धार्थ ताबिश

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